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Tuesday, July 17, 2018

सुख और दुख की परिभाषा



ऐ "सुख" तू कहाँ मिलता है..
क्या तेरा कोई स्थायी पता है..

क्यों बन बैठा है अन्जाना..
आखिर क्या है तेरा ठिकाना..

कहाँ कहाँ नहीं ढूंढा तुझको..
पर तू ना कहीं मिला मुझको..

ढूँढा ऊँचे मकानों में..
बड़ी बड़ी दुकानों में..

स्वादिष्ट पकवानों में..
चोटी के धनवानों में..

वो भी तुझको ढूंढ रहे थे..
बल्कि मुझको ही पूछ रहे थे..

क्या आपको कुछ पता है..
ये सुख आखिर कहाँ रहता है?

मेरे पास तो "दुःख" का पता था..
जो सुबह शाम अक्सर मिलता था..

परेशान होके रपट लिखवाई..
पर ये कोशिश भी काम न आई..

उम्र अब ढलान पे है..
हौसले थकान पे है..

हाँ उसकी तस्वीर है मेरे पास..
अब भी बची हुई है आस..

मैं भी हार नही मानूंगा..
सुख के रहस्य को जानूंगा..

बचपन में मिला करता था..
मेरे साथ रहा करता था..

पर जबसे मैं बड़ा हो गया..
मेरा सुख मुझसे जुदा हो गया..

मैं फिर भी नही हुआ हताश..
जारी रखी उसकी तलाश..

एक दिन जब आवाज ये आई..
क्या मुझको ढूंढ रहा है भाई..

मैं तेरे अन्दर छुपा हुआ हूँ..
तेरे ही घर में बसा हुआ हूँ..

मेरा नही है कुछ भी "मोल"..
सिक्कों में मुझको ना तोल..

मैं बच्चों की मुस्कानों में हूँ..
हारमोनियम की तानों में हूँ..

पत्नी के साथ चाय पीने में..
"परिवार" के संग जीने में..

माँ बाप के आशीर्वाद में..
रसोई घर के पकवानो में..

बच्चों की सफलता में हूँ..
माँ की निश्छल ममता में हूँ..

हर पल तेरे संग रहता हूँ..
और अक्सर तुझसे कहता हूँ..

मैं तो हूँ बस एक "अहसास"..
बंद कर दे तु मेरी तलाश..

जो मिला उसी में कर "संतोष"..
आज को जी ले, कल की न सोच..

कल के लिए आज को ना खोना..

मेरे लिए कभी दुखी ना होना..
मेरे लिए कभी दुखी ना होना..

वो ज़माना कुछ और था

वो ज़माना और था.. कि जब पड़ोसियों के आधे बर्तन हमारे घर और हमारे बर्तन उनके घर मे होते थे। वो ज़माना और था .. कि जब पड़ोस के घर बेटी...